Wednesday, May 16, 2012

{कई महीनों से  अपने किसी भी निजी ब्लॉग पर कोई रचना पोस्ट नहीं कर पाया था। पिछले दिनों पाप-नाशिनी पवित्र नदी माँ अलकनंदा के तट के समान्तर की गई एक यात्रा के दौरान मिली प्रेरणास्वरूप लिखी गई एक कविता जैसी भी बन पड़ी है, आज  प्रस्तुत है। फोटो भी इसी यात्रा के दौरान खींचे गये हैं। ..... उमेश महादोषी }




अलकनंदा

अलकनंदा!
तुम सचमुच साहसी हो
डरती नहीं तनिक भी
इन भयावह पहाड़ों से
जहाँ भी जगह मिलती है
दिखाकर अंगूठा इन्हें
निकल जाती हो
अलकनंदा!
तुम बड़ी शरारती हो!




सर्पिणी समझकर
ये भीमकाय
तुम्हें पकड़ने को झुकते हैं
तुम इन्हें हैरान करती हो
इनके हाथों से फिसलकर
खिलखिलाती आगे बढ़ती हो
कहीं इन्हीं के कदमों के पास
शान्त/छोटी सी झील बन
छुपती हो
अलकनंदा!
तुम खूब नाटक करती हो


मैं इन पहाड़ों को तना हुआ
अट्ठहास करता देखता हूँ
कहीं कोई
तनिक सा भी खिसक पड़ा
तो क्या होगा तुम्हारे बजूद का
बार-बार डरता हूँ
पर तुम.....तुम तो 
गोया निडर चिड़िया सी
इधर से उधर फुदकती हो
अलकनंदा!
क्या तुम सचमुच नहीं डरती हो?


कभी लगता है
तुम बेहद सहमी हो
डरी-डरी सी
सांसे रोके
दीवारों से चिपकी हो
सोचता हूँ 
उलझ पडूँ मैं
इन मनहूसों से
ताकि मौका पाकर
तुम भाग खड़ी हो
पर तुम तो अचानक 
छोटी बच्ची सी
आँखों में 
हँस पड़ती हो
मैं मूर्ख नहीं समझ पाता
ये पहाड़ तुम्हारे अपने हैं
भाई हैं, पिता हैं
अलकनंदा!
तुम इन्हें कितना प्यार करती हो!




इन पहाड़ों के कन्धों पर 
चढ़कर कभी
तुम नाच उठती हो
कभी इनकी गोद में बैठकर
मचल उठती हो
कितनी ही नदियों-नालों को
छोटे भाई-बहिनों सा
उंगली पकड़कर 
अपने साथ दौड़ाती हो, खिलाती हो
आगे बढ़ जाती हो
अलकनंदा!
तुम कितना प्यार वर्षाती हो!