Monday, March 18, 2013

दो कविताएँ


{माँ का यथार्थ और बेटों की विद्यमान भूमिका अक्सर मन को उद्वेलित करती रहती है। पर उस तरह से लिखना हो नहीं पाता। पिछले कुछ माह पूर्व मेरे मन का उद्वेलन तमाम अवरोधी झिल्लियों को चीरकर कुछ काव्य रचनाओं में भौतिक रूप पा ही गया। ऊहापोह की स्थिति से उबरते हुए आज उन्हीं रचनाओं में से दो कविताएं रख रहा हूँ। मेरे लिए इन रचनाओं के साथ अभिव्यक्ति की ईमानदारी के निर्वाह से ज्यादा महत्वपूर्ण वह पीड़ा है, जो अनेक माँओं के चेहरों की झुर्रियों से टपककर मेरे अन्तर्मन की सूखी मिट्टी को गीला कर जाती है।}

झूठी कविता

परिस्थितियाँ
माँ से बड़ी हो गयीं हैं
और सुबह-शाम 
दोनों समय की मिलाकर 
उनकी कुल दो रोटियाँ भी
हम पर भारी पड़ गयीं हैं
ठीक ही है शायद
माँ की परवरिश में 
कोई कमी रही होगी
छाया चित्र : उमेश महादोषी
जो हमें वो शक्ति नहीं दे पायी
कि हम ‘परिस्थितियों’ से लड़ पाते
और पूरे चौबीस घंटों के दिवस में
दो समय पर
उसे दो रोटियाँ दे पाते

वैसे ‘परिस्थितियों’ की कोई परिभाषा नहीं है
सिवाय इसके कि किसी अज्ञात से
मकड़ी के बुने किसी जाल-से में
सिर फंसा-फंसा सा नज़र आता है
पता नहीं
आँखों में ये काजल
बेशर्मी का है या बुजदिली का
कि माँ की परवरिश से मिला थोड़ा भी साहस
कहीं नज़र नहीं आता है

कहने को ईश्वर का दिया इतना कुछ तो है 
परिवार का जीवन-यापन भी 
ठीक-ठाक हो जाता है
पर ईश्वर के इस दिये में
माँ की परवरिश और आशीर्वाद का 
कुछ योगदान भी है या नहीं
समझ नहीं आता है

कितना अजीब सा यथार्थ है
कि आज माँ हैं
और हमारे अन्दर 
दुनियाँ के लिए छटपटाती 
संवेदनाएँ हैं
माँ की आँखें हमें देखने को
छटपटाती हैं
अपनी गोद में हमारा सिर रखकर
थपथपाना चाहती हैं
पर हमारी संवेदना 
सिर्फ दुनियाँ के लिए 
छटपटाती है
बड़ी सावधानी से 
माँ से बचकर निकल जाती है
क्या करें!
परिस्थितियाँ माँ से बड़ी हो जाती हैं! 
दुनियाँ देखे 
कि उसके इतने बड़े फलक पर फैले
संवेदनाओं के व्यापार से भी
इतना-भर नहीं जुट पाता
कि माँ की दो रोटियों का 
इन्तजाम हो पाता!

काल का सत्य सबको स्वीकार करना पड़ता है
कल जब माँ नहीं रहेगी
हमें उसकी कितनी याद आयेगी
आँखों से आँसुओं की अविरल धारा फूटेगी
आँसुओं के साथ कुछ शब्द भी झरेंगे
कोई कविता भी जन्मेगी
संवेदना की धरती गीली होगी
पर क्या तब माँ की ये दो भारी रोटियाँ
याद आयेंगी?
क्या उस अज्ञात मकड़ी के जाले जैसे कुछ से
हमारा सिर मुक्त हो जायेगा?
क्या तब
हमारी संवेदनाओं के व्यापार से
माँ के उस यथार्थ के फूल अलग हो पायेंगे?
और क्या तब ‘परिस्थितियाँ’ 
माँ से छोटी हो जायेंगी?

शायद ऐसा कुछ नहीं होगा
जो होगा 
वो तर्क-तीरों से विछिप्त होगा
एक झूठा-सा 
दुनियाँदारी का व्यवहार होगा
एक झूठी-सी, मक्कार-सी कविता होगी
माँ की यादों को दगा देती 
व्यापारिक संवेदना होगी
सच तो यह है
कि माँ पर लिखी हर कविता
सिर्फ और सिर्फ एक झूठ होगी!
.......बस एक झूठ, 
बहुत बड़ा झूठ होगी!!



मां की कविता

माँ ने भी तो कविताएँ लिखी हैं
एक, दो नहीं
कई सारी कविताएँ
कुछ ऐसी भी हैं
जो शब्दों में नहीं ढल पाईं
माँ की कविताओं में 
रचनात्मकता की सलाइयाँ
बहुत कुछ बुनती रहीं
पर क्या माँ किसी कविता में
तश्वीर बनकर उतर पाईं!

ऐसा नहीं कि
माँ ने कोशिश नहीं की
पर ‘परिस्थितियां’ माँ से बड़ी हो गईं
और शब्दों में ढलने के बावजूद 
माँ की सभी कविताएं 
अधूरी रह गईं

रेखाचित्र : बी मोहन नेगी 
दरअसल माँ के भाव
शब्दों के रंग में रंग नहीं पाए
जैसे उसके बाल
उम्र के हिसाब से
पक नहीं पाए
उनकी हर कविता के भाव
तुकबन्दियों के बहाव में बहते रहे
डूबकर तली में बैठे
परिस्थितियों के कीचड़ में खोते रहे

शब्दों के विद्रोह को 
माँ समझ नहीं पाईं
या समझकर भी 
कभी कुछ कर नहीं पाईं
परिस्थितियों के आगे
हमेशा छोटी बनी बैठी रहीं
अपनी आँखों की नमी को
आँखों में ही पीती रहीं

काश! माँ की कोई कविता
एक बड़ी कविता बन पाती
माँ को 
परिस्थितियों से बड़ा कर पाती
माँ की तश्वीर बन पाती!