Sunday, September 26, 2010

कुछ हाइकु


||एक||
टालना छोड़ो
होने दो एक बार
होना है जो भी!

||दो||
अलविदा, हे!
शब्दों का यह गुच्छा
तुम्हारे लिए

||तीन||
फिर मिलेंगे
जो नहीं निभ सका
निभाने उसे

||चार||
मैं देखूं बस
मछली की सूरत
इस झील में

Monday, August 30, 2010

कुछ छुटपुट हाइकु

०१.
डूबे मगर
उछले भी तो खूब
मछली बन

०२.
दिल में कहीं
खदकता सा कुछ
आँखों में गिरा

०३.
लू के थपेड़े
खाए तो समझा, यूं
सूरज भी है

०४.
देखूँ कितने
छोटी छोटी आँखों से
बड़े सपने!

०५.
लिखते हुए
टूटी कलम, जैसे
सपने मेरे!

०६.
आसमां पर
लिखी नहीं पड़ता
भाषा कोई!

०७.
लिखे जो शब्द
ठूंठ से खड़े रहे
कोष के द्वारे

०८.
पेड़ पै टंगे
वे पत्ते सूखकर
उसूल बने!

०९.
झांका मन में
सुरंग में केवल
नीरवता थी

१०.
देखो तो कभी
समुद्र में उतर
जी भरकर!

Thursday, July 22, 2010

विध्वंस तुम्हारे वश में नहीं है

तुम 'जो कुछ' लड़ रहे हो
'उसे' लड़ते हुए
कभी नहीं थकोगे
जानता हूँ
तुम्हारे अंधे जूनून को
पहचानता हूँ

थोड़े से व्यय से
अधिक आय का वहम
जब किसी के दिलोदिमांग पर
छा जाता है
तो थकावट का कचरा भी
अंध-उत्साह के दरिया के
भयानक बहाव में बह जाता है
तुम थोड़े से गोली-बारूद के व्यय से
बहुत सारी निर्दोष 'जानों' को
'आय' मानकर
अपनी क्रूरता के बोरों में भर रहे हो
सोचकर देखो
भारी भूल कर रहे हो
व्यय के खाते में / लेखा
गोली-बारूद का नहीं
उन मौतों का होता है
जिनका अपव्यय / तुम
अपनी आत्म-चिंतन की
तिजौरी का ताला तोड़कर कर रहे हो
काश! तुमने थोड़ी-सी
शिक्षा पाई होती
तो जरूर / तुम्हारी समझ में
इतनी सी बात आयी होती
'जान' लेना कोई 'आय' नहीं होता
मौत देना / जरूर
बहुत बड़ा 'अपव्यव' होता है

यह भी जानता हूँ
सोच की मशीनी प्रक्रिया में स्थिति होकर
मशीन की ही तरह
ये कर्म कर रहे हो
जिसका लक्ष्य
सिर्फ सपनों में होता है
तुम
ऎसी व्यापारिक इकाई बन रहे हो
तुम्हें स्वयं नहीं मालूम
'क्या' और 'क्यों' कर रहे हो

सपनों की नाल पकड़े
पल-पल / बिना थके
क्रूरता की गहराई में
तुम उतरते-चढ़ते हो
पर / क्या कभी इन सपनों के
स्रोत तक पहुंचते हो ?

यद्यपि तुम ब्रह्मा नहीं हो
उनके अनुयायी भी नहीं हो
फिर भी तुम्हारे लिए समझना जरूरी है
कमल की नाल पकड़कर
अथाह जल की अनंत गहराइयों में उतरकर
वह भी नहीं खोज पाए थे
कमल-नाल का स्रोत
वह स्रोत तो / सृजन के
छोटे से बीज में समाया था
जिसके लिए कमल-नाल के सहारे
किसी उछल-कूद की नहीं
थोडा सा ध्यानस्थ होने की जरूरत थी
जिसे अंततः उन्होंने अपनाया था

तुम्हारे सपनों का स्रोत भी
कहीं वहां विद्यमान है
जहाँ तुम्हारी सोच की मशीनी प्रकिया
तुम्हें लेकर नहीं जाती है
इसीलिए तुम्हारे कर्मों की
अपेक्षित परिणति भी नहीं हो पाती है
मात्र एक व्यापारिक इकाई की तरह
तुम
चलते भर रहते हो
'वो' जो तुम लड़ रहे हो
लड़ते भर रहते हो

हो सके तो
दो मिनट के लिए विश्राम करो
और मेरी छोटी सी बात
ध्यान से सुनो
ब्रह्मा जी- तुम्हारे भी 'परम' हैं
क्योंकि, वे- देवता और दैत्यों
दोनों के जनक हैं
उनके पद-चिन्हों पर
थोडा तो चलकर देखो
कालचक्र को साक्षी बनाकर
सपनों के वास्तविक स्रोत के बारे में सोचो

ब्रह्मा से पहले
रौद्र का प्रकटीकरण नहीं होता
यह बात अच्छी तरह समझ लो
जो कुछ तुम कर रहे हो
अनथक करते हुए भी
विध्वंस तुम्हारे वश में नहीं है
और वह
तुम्हारा अंतिम लक्ष्य भी नहीं है
इसलिए
और अपेक्षित परिणति के लिए
सृजन की ओर कूंच करो
देवता या दैत्य !
तुम जो कोई भी हो

Thursday, July 15, 2010

तुम्हारी स्थिति

तुम
धरती की
आँख बनकर उगे
फिर भी
धरती अंधी है
बताओ मेरे आका
अब
कहाँ तुम्हारी स्थिति है ?

कहीं ऐसा तो नहीं
कि / तुम उगे होओ
धरती के चेहरे की बजाय
उसके किसी पांव के तलबे में
और जब
घुटुरुओं चलती धरती
पहली-पहली बार
पांवों के बल चली हो
तब / तुम
कुचल गए होओ
पहली बार में ही ?

Friday, July 9, 2010

लाख निराशाओं के बावजूद

कितने अनंत तोड़ने होंगे / अभी
तुम्हारे लिए ?
तनिक/ मेरे थके-हारे बदन की ओर तो देखो!
तुम्हारी झलक भर के लिए / मैं
जाने कितनी कहानियों का पात्र बनता / भटकता रहा हूँ
और तुम / खुरदरे धरातल पर
अधूरे अंत की तरह
काल की ओट में गुम होते रहे हो
यथार्थवादी कहानियों में अनंत नहीं टूटता
सो मैं
कल्प-कथाओं का पात्र बनकर भी भटका हूँ
अनंत के पार
तुम होगे / तुम्हारी छवि होगी
यह विश्वास / हर बार
सूखे ठूंठों-से पहाड़ों और वीरान जंगलों में
खोकर रह गया है
पर लाख निराशाओं के बावजूद
अपनी ज़मीन से तुम्हारी आवाज सुनता हूँ
तो अनंत की ओर दौड़-दौड़ जाता हूँ
कितने अनंत तोड़ने होंगे / अभी
तुम्हारे लिए
समझ नहीं पाता हूँ !

Thursday, July 8, 2010

आग का सुलगाव

मेरे जिस्म में
सुलगती आग से
धुंआ उठता है
मेरा जिस्म
एक भटकती रूह से
चिपका फिरता है
वह आग से
मुक्ति चाहता है

और जब/ जिस्म
रूह से अलग होना चाहता है
रूह/ खुद
जिस्म से चिपक जाती है
वह/ जिस्म के साथ जलकर
भटकाव से मुक्ति चाहती है

पर
, मुक्तिदाता हे!
सुलगती आग का धुंआ
तुम सोखना मत कभी
आग को/ लपटों में
बदलना मत कभी

जिस्म और रूह को
दे सको जितनी
उम्र देना/ भटकाव देना
और बस
आग का सुलगाव देना !

Wednesday, July 7, 2010

अकेले में

जब भी / मैंने
अपने गाँव के पास बहती
नदी के किनारे बने बांध पर
टहलते हुए
अथवा
समीपस्थ रेलवे स्टेशन के
सूने प्लेटफार्म की किसी बेंच पर
बैठे हुए
कोई साँझ
बिलकुल अकेले में बिताई है
मुझे / अपनी मरी हुई कौम की
बहुत याद आई है
और उतनी ही याद
उस कफ़न की आई है
जो कौम की कब्र पर / बर्षों
हवा में फड़फड़ाता रहा
और अंतत:
तार-तार हो गया!