Friday, December 7, 2012



यूँ तो फिर लेट हो गए। खैर! सत्ता की कई कविताओं के बीच मेरी भी एक कविता। हो सके तो एक दृष्टि डालियेगा । ..... उमेश महादोषी 



पतवार छीन लो!

मझधार में नाव हो
और मेरे हाथों में 
पतवार हो
मैं लहरों पर 
कविताएँ  लिखता रहूँ 
और नाव डूब जाये
बताओ
क्या मुझे माफ कर दिया जाये?

इसलिए कहता हूँ 
देश को 
देश के नजरिए से देखो
मुसाफिरो! 
आंखें खोलो और समझो
एक जर्जर नाव की तरह देश
हिचकोले खा रहा है 
और वह, जिसे नाव खेनी है
बस कविताओं का स्वप्नजाल 
बिछा रहा है

उठो!
एक ऐसा नाविक ढूंढ़ो
जिसके बारे में 
चाहे जो कहा जाये
पर वह
पतवार चलाना जानता हो
नाव को मझधार से 
निकालना जानता हो

देश रहेगा
तो देश चलेगा भी
लहरों पर कविताएँ लिखने से
न देश बचता है
न देश चलता है
और आज जो हमारा नाविक है
वह सिर्फ और सिर्फ
लहरों पर कविताएँ लिखता है!

3 comments:

shobha rastogi shobha said...

आद . उमेश जी
आज ही आपका ब्लौग देखा । झकझोर कर जगा देनेवाली कविता , हिम्मत देने वाली , कुछ अपने से लगने वाले हाइकू ..वाह ..बहुत सुन्दर ..शब्द सामर्थ्य अद्भुत ..श्रेष्ठ कवि से रूबरू हुई ... लेखक तो पहले से ही मैदान मार चुका है ...बधाई ।

गुरप्रीत सिंह said...

आपकी कविता एक खोज है जो देश को चला सके।
http://yuvaam.blogspot.com/p/1908-1935.html?m=1

सीमा स्‍मृति said...

पहले तो आप के ब्‍लॉग नाम ऐसा है कि उससे जुड़ना स्‍वाभाविक है । आप की कविता पढ़कर कोई भी सोचे बिना नहीं रह सकता । इतनी गहनता कि बार बार पढ़ने का मन करता है।